आचार्य कुंदकुंद (ई. 127-179) कृत आचरण-विषयक 167 प्राकृत गाथाओं में निबद्ध ग्रंथ है ।
साधु और श्रावकधर्म का वर्णन करने वाला यह श्री रयणसार ग्रंथ आ. श्री कुंदकुंद स्वामी की. अमूल्य कृति है ।
दिगम्बर जैन आम्नाय में श्री कुन्दकुन्दाचार्य का नाम श्री गणधरदेव के पश्चात् लिया जाता है अर्थात् गणधरदेव के समान ही इनका आदर किया जाता है और इन्हें अत्यन्त प्रामाणिक माना जाता है।
यथा-
मंगलं भगवान वीरो, मंगलं गौतमो गणी।
मंगल कुन्दकुन्दाद्यो, जैनधर्मोऽस्तु मंगलं।।
यह मंगल श्लोक शास्त्र स्वाध्याय के प्रारम्भ में तथा दीपावली के बही पूजन व विवाह आदि के मंगल प्रसंग पर भी लिखा जाता है।
भगवान महावीर के पश्चात् उनके प्रथम गणधर गौतम स्वामी ने दिव्यध्वनि को ग्रहण कर उसे ग्रंथरूप में निबद्ध किया। उसी श्रुत परम्परा को अनेक आचार्यों ने आगे बढ़ाया।
उनमें आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी का नाम ग्रंथ रचना में सर्वाधिक प्रचलित है। वे श्रमणसंस्कृति के उन्नायक कहे गये हैं। उनके अनेक नाम भी आते हैं-पद्मनंदी, वक्रग्रीव, गृद्धपिच्छाचार्य, एलाचार्य आदि। वर्तमान में भी उनके पश्चात्वर्ती साधुगण अपने को कुन्दकुन्दाम्नायी मानते हैं। तभी प्रशस्ति आदि में कुन्दकुन्दाम्नाये सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे….. लिखा जाता है। इन्होंने ८४ पाहुड़ ग्रंथों की रचना की थी जिनमें से आज लगभग १२ रचनाएँ उपलब्ध हैं। समयसार, प्रवचनसार, नियमसार आदि आध्यात्मिक ग्रंथ माने जाते हैं, वहीं उन्हीं के ‘‘रयणसार’’ ग्रंथ में श्रावक धर्म और मुनिधर्म का निरूपण किया गया है।