सोनागिरी जिसका शाब्दिक अर्थ है -‘स्वर्णिम शिखर ‘ दिगम्बर जैन का पवित्र
स्थान है जो मध्य रेलवे के मुंबई मार्ग, ग्वालियर से 69 किलोमीटर और झांसी से 36 किमी – सोनागिर मंदिर परिसर ग्वालियर और झांसी दिल्ली के बीच स्थित है। निकटतम रेलवे स्टेशन दूर सोनागिर , 5 किमी दूर है।मध्य- प्रदेश के दतिया जिले में है और जैन मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है !
ऐसा कहा जाता है की नंग अनंग कुमार ने यहाँ से मोक्ष प्राप्त करके जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति पाई थी ! ८वे तीर्थंकर चंदप्रभ स्वामी का यहाँ १७ बार समवशरण आया था और साढ़े ५ करोड़ मुनियों ने यह से मोक्ष प्राप्त किया है !
पहाड़ी पर ७६ जैन मंदिर है और २६ मंदिर गाव में है! पहाड़ी का जो ५७ नंबर का मंदिर है वेह मुख्या मंदिर चंद्प्रभ भगवान् की मुलनायक प्रतिमा से युक्त है जो १७ फीट ऊँची है !
सोनागिरी जैसे अनोखे स्थान को छोटा सम्मेद शिखरजी भी कहते है ! जो ३२ एकड़ की २ पहाडियों से जुदा हुआ है!
सचित्र प्रमाणों के आधार पर इस क्षेत्र को ईसा पूर्व की तीसरी शताब्दी का सिद्ध किया था।
भारतवर्ष के बुन्देलखण्ड क्षेत्र तथा वर्तमान मध्य प्रदेश के दतिया जिले में अवस्थित सोनागिरि सिद्धक्षेत्र बड़ा महत्त्वपूर्ण तीर्थ क्षेत्र है। जैन संस्कृति का प्रतीक यह क्षेत्र वास्तव में विन्ध्य भूमि का गौरव है। र्धािमक जनता के लिये प्रेरणा स्रोत है तो पर्यटकों के लिये दर्शनीय स्थल और कला मर्मज्ञों एवं पुरातत्त्वज्ञों के लिये अध्ययन क्षेत्र है। सोनागिरि जिसका प्राचीन नाम श्रमणगिरि या स्वर्णगिरि है। यह बहुत ही सुन्दर एवं मनोरम पहाड़ी है। रेलगाड़ी से ही सोनागिरि के मन्दिरों के भव्य दर्शन होते हैं। मन्दिरों की पंक्ति स्वभावत: दर्शकों का मन मोह लेती है। सुन्दर पहाड़ी पर मन्दिरों की माला और प्रकृति की बूटी निरखते ही बनती है। इस पहाड़ी से नंगानंग कुमारों सहित साढ़े पाँच कोटि मुनिराज मोक्ष गये और अष्टम् तीर्थंकर श्री चन्द्रप्रभु का समवसरण लगभग १५ बार यहाँ आया था।
नंगानगकुमारा विक्खा पंचद्धकोडिरिसि सहिया।
सुवण्णगिरिमत्थयत्थे गिव्वाण गया णमो तेसि।।
निर्वाणकाण्ड के उपरोक्त श्लोक में ‘सुवण्णगिर’ शब्द आया है जिसका तात्पर्य श्रमणगिर से है। ‘श्रमण’ शब्द का अर्थ अत्यन्त व्यापक है। विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध श्रमण शब्द के विविध रूप—समण, शमण, सवणु श्रवण, सरमताइ, श्रमगेर आदि श्रमण शब्द की व्यापकता सिद्ध करते हैं।
वे मनुष्य धन्य हैं जो इस भारत धरा पर जन्म धारण करते हैं और अपने श्रम से देवत्व भी प्राप्त करते हैं और अन्त में निर्वाण प्राप्त करते हैं। देवता भी इस पर जन्म लेने के लिये लालायित रहते हैं। ऐसी जैन श्रमण संस्कृति अति प्राचीन है। और जिस पर्वत श्रेणी पर कोटि कोटि मुनिराज श्रम (तपस्या) द्वारा कर्मों का नाशकर मोक्ष पधारे, वह श्रमणगिर नाम सार्थक है।
ऋग्वेद में ‘श्रमण’ शब्द तथा वातरशना मुनय: (वायु जिनकी मेखला है, ऐसे नग्न मुनि) का उल्लेख हुआ। वृहदारण्यक उपनिषद में श्रमण के साथ साथ ‘तापस’ शब्द का प्रयोग हुआ है। इससे स्पष्ट है कि प्राचीन काल से ही तापस ब्राह्मण एवं श्रमण भिन्न—भिन्न माने जाते थे। तैत्तरीय अरण्यक में तो ऋग्वेद के ‘मुनयो वातरशना:’ को श्रमण ही बताया गया है।
इस संक्षिप्त विवरण में जिसे जैन श्रमण संस्कृति कहा गया है, वैदिक और बौद्ध संस्कृति से पूर्व की संस्कृति है और भारत की आदि संस्कृति है। यह श्रमण संस्कृति श्रमणांचल में अपने पूर्ण प्रभावक रूप में फैली हुई थी।
भारत में यही एक श्रमणगिरि पर्वत हैं जहाँ श्रमणों ने कठिन तप भी किया एवं निर्वाण पद प्राप्त किया। यहाँ भगवान चन्द्रप्रभु का सवमसरण आया और उसी समय नंग, अनंग आदि कुमारों ने दीक्षा ली और घोर तप किया। उनके साथ ही अन्य राजाओं एवं श्रावकों ने दीक्षा ली। तपश्चरण के बाद अष्ट कर्मों का नाश कर इसी स्थान से मोक्ष पद प्राप्त किया। इस प्रकार श्रमण या श्रमणगिरि नाम सार्थक हुआ।
यद्यपि श्रमणगिरि का संस्कृत भाषा रूपान्तर स्वर्णगिरि है, लेकिन इस नाम के साथ भी गाथायें जुड़ी हैं जो। स्वर्णांचल महात्म्य में बताया है कि—‘‘उज्जयिनी के महाराजा श्रीदत्त की पटरानी विजया के कोई सन्तान न होने से म्लान मुख रहा करती थीं। भाग्य से एक दिन मर्हिष आदियत और प्रभागत दो चारण, ऋषिधारी मुनीश्वर महाराजा श्रीदत्त के राजमहल में आकाश से उतरे। महाराजा ने भक्तिपूर्वक आहार दिया। आहार दान के प्रभाव से पंचाश्चर्य हुए। आहार के पश्चात् महाराज और पटरानी ने पुत्र लाभ के विषय में विनयपूर्वक पूछा। ऋषियों ने उत्तर दिया कि राजन् ! चिन्ता छोड़ो, तुम्हें अवश्य पुत्र लाभ होगा। तुम श्रद्धापूर्वक श्रवणगिरि की यात्रा करो। यह पर्वत पृथ्वी पर भूषण और अद्वितीय पुण्य क्षेत्र है। यह श्रमणगिरि क्षेत्र जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में बद्र नाम का देश है। जिसे भाषा में बुन्देलों का देश कहते हैं। इस देश का पालन बड़े बड़े समृद्ध राजा करते रहे हैं और आज भी कर रहे हैं। यह देश नाना प्रकार की समृद्धियों से भरपूर है जिस प्रकार समुद्र में रत्न भरे पड़े हैं। राजा श्रीदत्त पाँच दिन श्रवणगिर पर्वत पर रहा। पर्वत और भगवान की पूजा वन्दना में रहकर रात्रि जागरण किया। इस प्रकार धर्म कार्य करते नौ मास व्यतीत हो गये। दसवें मास में शुभ मुहूर्त और शुभ नक्षत्र में बालक का जन्म हुआ। पुत्र का रूप सोने जैसा देखकर प्रसन्न होकर राजा ने उसका नाम स्वर्णभद्र रखा। इस प्रकार राजा ने इस पर्वत का नाम स्वर्णाचल प्रसिद्ध किया।’’
द्वितीय कथानक—
इस पर्वत का नाम श्रवणगिर के बाद सुवर्णगिर रहा जो भी अपने नाम से विख्यात रहा। कहते हैं राजा भृतहरि के बड़े भाई शुभचन्द्र ने यहाँ पर मुनि अवस्था में तपस्या की थी। तप के प्रभाव से शरीर में कान्ति तो बहुत थी, परन्तु शरीर कृश हो गया था। राजा भृतहरि ने भी राजपाट त्याग कर सन्यास धारण कर लिया था और अपने गुरू के पास में विद्या सिद्ध कर रसायन प्राप्त की जो पत्थर पर डालने से सोना बन जाता था। एक समय राजा भृतहरि को अपने शुभचन्द्र का स्मरण आया तो एक शिष्य को भेजकर खोज करवाई। खोजने पर आचार्य शुभचन्द्र श्रवणगिर पर्वत पर ध्यान करते देखे गये तथा शरीर कृश पाया। शिष्य ने जाकर यथावत समाचार भृतहरि को बताया कि आपके भाई अत्यन्त कृश शरीर हैं और तन पर वस्त्र तक नहीं है। ऐसा सुनकर भृतहरि ने थोड़ी सी रसान सोना बनाने वाली शिष्य के हाथ भेजकर कहलाया कि पत्थर पर डालते ही सोना बन जायेगा जिसका उपयोग कर आनन्द से भोगना। शिष्य रसायन लेकर पहुँचा तो उस समय मुनि श्री शुभचन्द्र ध्यान में लीन थे। ध्यान पूर्ण होने के बाद जो रसायन लेकर आया था उसने रसायन देकर निवेदन किया कि इसे आपके भाई भृतहरि ने भेजा है। इस रसायन को पत्थर पर डालने से सोना बन जायगा। मुनिश्री शुभचन्द्र ने विचार किया कि भृतहरि कितना अज्ञानी है जो सोना—चाँदी की इच्छा रखता है। महलों में इनकी क्या कमी थी जो घर व राज छोड़ दिया। उन्होंने रसायन को उसी समय जमीन में डाल दिया।
शिष्य ने यह समाचार भृतहरि को कह सुनाया। जिससे वह क्रोधित हुआ और स्वयं भाई से मिलने चले। ध्यान में महाराज को देखकर तथा कृश शरीर को देखकर दुखित हुआ। ध्यान समाप्त होते ही निवेदन किया कि मुझे कितने साल बाद यह रसायन प्राप्ति हुई और आपने इसे जमीन पर फैक कर बरबाद कर दिया। उस वचन को सुनकर महाराज श्री शुभचन्द्र बोले—‘तुमने जो भी तप किया, व्यर्थ किया। यह संसर परिभ्रमण का कारण है। अगर धन और सोना वगैरह की जरूरत थी तो महलों में क्या कमी थी ? जो छोड़कर तप करने निकले। भृतहरि ने शंका निवारणार्थ पूछा कि आपने बारह साल में क्या किया ? उस समय तुरन्त एक मुट्ठी धूल उठाकर प्रभु का नाम स्मरण कर पहाड की तरफ फैक दिया जिससे सारा पहाड़ सोने का बन गया। उस समय से इस पहाड़ का नाम सुवर्णगिर के नाम से प्रसिद्ध हैं
संकलन राजेश पंचोलियां इंदौर
Morning: 5:30 AM to Evening 8:30 PM,
Sonagiri is a famous Jain Siddh Kshetra, having scores of Jain temples dating from the 9th century onwards. According to Jain texts, since the time of Chandraprabhu (the 8th Teerthankar), five and a half crores of Muni have attained moksha (liberation) here. It is located in the Datia district of Madhya Pradesh. It is 60 km from Gwalior and is well connected with roads.
Train: Sonagiri Railway Station
Air: Gwalior Airport